ش | ی | د | س | چ | پ | ج |
1 | ||||||
2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 |
9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 |
16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 |
23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 |
30 |
چه غریب ماندی ای دل نه غمی نه غمگساری
نه به انتظار یاری، نه ز یار انتظاری
غم اگر به کوه گویم، بگریزد و بریزد
که دگر بدین گرانی نتوان کشید باری
سحرم کشیده خنجر که چرا شبت نکشته است
تو بکش که تا نیفتد دگرم به شب گذاری
نه چنان شکست پشتم که دوباره سر برآرم
منم آن درخت پیری که نداشت برگ وباری